Mukund Lath
कर्म – चेतना के आयाम
हमारे यहाँ के चिन्तन में मनुष्य का व्यावर्तक लक्षण औचित्य-बोध में बसती कर्म-चेतना (धर्म) को माना गया है, कार्य सिद्धि का बुद्धि-चातुर्य तो पशु में भी होता है। मनुष्य में आत्म-चेतना के साथ उभरती कर्म-चेतना भाषा-चेतना की तरह सहज होती है। पर वह हमारी सहज स्वार्थ और उपादेयता की वृत्तियों के ऊपर जागती हुई हमारी प्रवृत्ति को ही नई ऊर्ध्व-गति देने की प्रेरणा पालती है - अपनी स्वतन्त्र साध्यता के साथ हममें जागती है। यों कर्म-प्रज्ञा का कला-प्रतिभा से अंतःसाम्य है। यह साम्य महाभारत युद्ध के बीच कठिन धर्म-संकट के एक प्रसंग में कृष्ण के वचन से भी व्यंजित होता है जहाँ वे धर्म-बोध को नियमों से - वेद के भी नियमों से - ऊपर उठाकर कर्मशीलों की प्रज्ञा के रूप में देखते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए कर्म पर यह प्रस्तुत विमर्श कर्म-चेतना को कला-चेतना के आदर्श पर समझने की भी चेष्टा है।