Mukund Lath
तिर रही वन की गंध
यह कविता-संग्रह किसी प्राचीन कवि को आज की कविता में अपनाने का एक अनन्य प्रयास है। ये स्वतन्त्र कवितायें हैं जो पुराने को स्वीकारते हुए नई रची गई हैं। रीति-काल के कवियों में पुराने-कोअपनाती नवीन सृष्टि देखी जा सकती है, पर आज की हिन्दी के लिये रचना का यह उन्मेष अपूर्व है। हिंदी कविता में नई दिशा, नई संभावना के संकेत भी जगाता है। (अपने कविकर्म पर मुकुन्द लाठ ने संग्रह के अंत में विचार किया है, जो पठनीय है)।
कवितायें प्रकृति पर हैं - प्रकृति यहां अरण्य और अरण्य के भीतर-बाहर गाँव, खेत, झील, सरोवर, फलवारियां, अमवारियां, इन सब को समोता क्षेत्र है। कवि बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति में उतरता है - संवेदना की पैठती, पर दूर-फैलती ध्वनि गूंजती हैं उसके स्वर में। बड़ी कुशाग्र दृष्टि से वाक्पतिराज प्रकृति के नखशिख का वीक्षण करते हैं। सहज, निराडम्बर भाषा में अपने-विषय-से-एकात्म, छोटी छोटी छवियां उभारते चलते हैं, जो अभिधा में झीनी पर व्यंजना में गफ हैं। बड़े सजग-सचेतन कवि थे वाक्पतिराज - अपनी कविताई का मर्म उभारते हुए, चित्र-रसिकों की भाषा में कहते हैं कि उनकी कविता रंगों की ऐसी घुलती आभाओं में जागती है कि आंखों को माने साक्षात् छू लेती है। पर ये कवितायें चित्र ही नहीं हैं, चलचित्र हैं - निगूढ़ नाटक के संकेत भी पालती हैं। वाक्पति हमारे लिये रंग, रूप का ही नहीं, रस और गंध का विरल, विस्मयकर वैभव संजोते हैं। वे प्रकृति की जिन महीन मुद्राओं को हमारी संवेदना में उभार देते हैं, उन पर हमारा ध्यान नहीं-सा जाता है। कवि मानो हमारी दृष्टि की अगुवाई करता हमें प्रकृति में ले चलता है। हमारी दृष्टि में जो अनदिखा रहता है, हमें दिखाता है - एक नई आँख जगाता है। पर किसी कविताई के विदग्ध शिल्प के सहारे नहीं - प्रकृति के ही सहारे। एक दुर्लभए अनूठी प्रतिभा है वाक्पति के प्रकृति-काव्य में जो प्रकृति में ही कविता ढूंढ लेती है। वाक्पति इन्द्रियों की अभिभूत, चमत्कृत आँखों से प्रकृति को देखते, सुनते, स्पर्श करते और शायद सहसे बढ़ कर सूंघते हैं। उनमें प्रकृति के प्रति एक शोभा-स्फुरित जीवैक्य बोध है जो ऋजु, सरल, अनायास है और ऐसी ही कविता में रूप लेता है।
एक ही कवि की रची हुई ऐसी कविता का इतना बड़ा संभार संस्कृत या प्राकृत में ही नहीं, किसी भी साहित्य में बेजोड़ है। उसका यह अपने आप में 'स्वप्रतिष्ठ' रूपांतर उसे हिंदी की भी सम्पत्ति बनाने की साध और सामर्थ्य रखता है।
वाक्पतिराज (प्राकृत में 'बप्पइ राय') आठवीं सदी के यशस्वी सम्राट्, यशोवर्मा के सभाकवि थे। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि भवभूति भी उसी सभा के रत्न थे। यशोवर्मा कन्नौज से भारत के एक बड़े भूभाग पर राज्य करते थे। राज्य का विस्तार चाहते हुए उन्होंने दिग्विजय के लिये प्रयाण किया। वाक्पति उनके साथ थे। कवि ने यशोवर्मा और उसके दिग्विजय की गाथा को काव्य में गूंथते हुए प्राकृत में गउडवहो नाम के महाकाव्य की रचना की ('गउडवहो' का अर्थ है गौड़ देश के राजा का - युद्ध में - वध)। पर गउडवहो कहने को ही इतिहास है - उसमें इतिवृत्त कम, काव्य ही अधिक है।
भारत उस समय जंगलों का देश था। यशोवर्मा की सेना जंगलों में से कूच करती निकलती थी। वाक्पति राजा के साथ थे। जब सेना किसी जंगल में आती है तो वाक्पति सेना को भूल जाते हैं; राजा को, उसकी कीर्तिकथा को बिसार देते हैं, जंगल को देखने लगते हैं। उनका विस्मय, उनका विलक्षण देखना ही ये कवितायें हैं।