Mukund Lath
संगीत एवं चिन्तन
चिन्तन या विचार में एक विशेष प्रवृत्ति होती है जो हमारी अन्य साधनाओं में उतनी उजागर नहीं होती रू आत्मावलोकन । हम अपनी अन्य - प्रवृत्तियों और साधनाओं का अवलोकन भी चिन्तन के माध्यम से करते हैं । इसलिये चिन्तन के स्वरूप पर चिन्तन हमारी आत्मचेतना का एक गहरा पुरुषार्थ है रू हमारे ज्ञानए कर्मए संकल्प हमारी संस्कृति मात्र पर उसका प्रभावं व्याप्त होता है।
चिन्तन के स्वरूप और प्रयोजन को कई दृष्टियों से देखा गया है। पर संगीत की दृष्टि से उस पर विमर्श नहीं हुआ है। ऐसे विमर्श के औचित्य -को ही संशय की दृष्टि से देखा जाता रहा है। इन व्याख्यानों में विमर्श का यह अछूता या - 'अनहोना' द्वार खोलने की चेष्टा है । इस द्वार से हम चिन्तन के मर्म में प्रवेश करें तो उसे एक नयी दृष्टि से देख पाते हैं। देख पाते हैं कि चिन्तन भी राग-संगीत की तरह आलाप के निरन्तर नये उन्मेष की साधना है। उसकी प्रेरणा में भी सृजन की वैसी ही सम्भावनाओं का सहज विस्तार है जैसा रागदारी में। वैसी ही बहुलता भी है। चिन्तन के स्वभाव या उद्देश्य में ऐसा कोई निहित आग्रह नहीं कि वह किसी 'एक' सत्य के ज्ञान की साधना का साधन मात्र -हो-जैसा कि अकसर माना जाता है। जैसा मानने के संस्कार हममें रूढ़ किये जाते हैं।
संगीत की दृष्टि से यों चिन्तन पर विचार करें तो हमारे संगीतबोध में भी एक नयी व्याप्ति जाग सकती है। संगीतए विचार से कहीं अधिक -संस्कृति-निष्ठ होता है। उसे संस्कृति की -पहचान कहा भी गया है-हमारी संस्कृति की आज कोई अपनी पहचान है तो संगीत ही है। इन व्याख्यानों में संगीत पर चिन्तन संस्कृति पर चिन्तन के साथ आगे बढ़ता है। 'राग', 'ध्ुन', - 'आलाप' जैसी संगीत की अपनी शब्दावली का प्रयोग करता हुआ आगे बढ़ता है। हिन्दी में विचार को एक नया मोड़ए नया छन्दए नया लोच देता हुआ उसे भी अधिक संस्कृति-निष्ठ बनाने की साधना करता चलता है।