Mukund Lath
संगीत और संस्कृति
विभिन्न कलाओं में गहरी अभिरुचि रखने वाले सुपरिचित संगीत पारखी और चिंतक मुकुंद लाठ की यह पुस्तक कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण और अनूठी है। वह इसमें संकलित लेखों में संगीत-नृत्त-नाट्य को बृहत्तर संदर्भो में रखकर देखते-परखते हैं, और संस्कृति मात्र का एक गहरा बोध कराते हैं-कुछ इस तरह कि इस 'बोध' में संगीत और अन्य कलाओं के कई मर्म दीप्त हो उठते हैं। वह भारतीय संगीत को भारत की शिल्प परम्पराओं से जोड़कर भी देखते हैं, और चित्रकृतियों तथा मूर्तिशिल्पों के साक्ष्य से संगीत-जगत की बारीकियों में उतरते हैं। ठोस प्रमाणों और भावभरी कल्पनाओं के ज़रिये वह जो भी विमर्श बुनते हैं, उसमें एक सच्चे रसज्ञ की रचनात्मक ऊर्जा निहित है। उनका गद्य सहज प्रवाही है, और प्रीतिकर ढंग से सम्प्रेषणीय है।
लेख बहुविध विषयों पर हैं, लेकिन वह एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कारण यही कि लेखक के जो सरोकार हैं, वे मूलत: कलाओं की निर्मिति और उनसे प्राप्त होने वाले उन मानवीय अनुभवों से संबंध रखते हैं, जिन्हें कलाओं से ही प्राप्त किया जा सकता है। कला-साहित्य की परंपराओं में मुकुंद जी की गहरी पैठ है और कई विधाओं तथा रचना विधियों के इतिहास में भी उनकी दिलचस्पी है। रागों के इतिहास के माध्यम से वह जो राग-विमर्श, एक अनुराग के साथ बुनते हैं, वह इसी का प्रमाण है।
वह परम्पराओं के समक्ष प्राय: कुछ नए और मौलिक प्रश्न रखते हैं, और आधुनिकता को भी नए प्रश्नों और संस्कृति की कसौटी पर कसते हैं। शानदेव के संगीतरत्नाकर से संबंधित उनका लेख हो, या ध्रुपद पर उनका चिंतन, या पंडित जसराज से उनकी बातचीत होए सबमें उनकी अध्ययनशीलए मननशील और एक तात्त्विक दार्शनिक दृष्टि को भी हम सक्रिय पाते हैं। "'ताल और तबला' जैसे लेख में, तथा अन्य लेखों में भी वह निरा औपचारिक-सैद्धांतिक शैली से हटकर, संवाद की जो कहन-शैली अपनाते हैं, उसमें मिठास है, अपनापन है, और एक ऐसा विमर्श-सुख है जो उलझन भरे और जटिल प्रश्नों को भी अपने ढंग से सुझलाती चलती है। और इसमें भला क्या संदेह कि पाठक इस विचार-यात्रा में विमर्शों का एक सहयात्री बनकर उनका पूरा आनंद उठा सकेगा।