info@mukundlath.in
Shyam Nagar, Sodala Jaipur
Contact Us
धर्मसंकट
Home » धर्मसंकट
dharamsankt

Mukund Lath

धर्मसंकट

धर्म पर विचार आचरण की भूमिका से पूर्णतः_ पृथक दार्शनिक अवधारणाओं के व्योम में भी हो सकता हैए किन्तु धर्म-संकट पर विचार जीवन की ठोस भूमि को छोड़ कर नहीं हो सकता। इस पर विचार की प्रचलित विधि कथा है। इसी से धर्मसंकट पर दार्शनिक लेखन प्रायः नहीं मिलता। किन्तु मुकुन्द जी का यह निबन्ध दार्शनिक हैए इसलिए इसमें विचार अवधारणाओं के उद्वहीत व्योम में ही विचरण करता हैए पर बड़े कौशल से इसमें आचरण की ठोस धरती से स्पर्श भी साधा गया है। इस असंभव को संभव - बनाने के लिये मुकुन्द जी ने एक नई शैली का विकास किया है जो कुशल होने के साथ बहुत चारु भी है।


इस निबन्ध की एक और विलक्षणता है। इसमें भरपूर शास्त्र-चर्चा है - उपनिषद, ब्राह्मण, गीता, महाभारत आदि अनेक शास्त्रों कीए किन्तु इसमें शास्त्र पर चर्चा नहीं हैए बल्कि शास्त्र यहां लेखक के अपने विचार-क्रम का अंग बन कर आते हैं और एक नये संदर्भ में अपने अर्थ का एक नया मर्म देख पाते हैं।


धर्म-संकट की स्थिति दो विरोधी धर्मों की तुल्यबलता में उपस्थित होती है। इस संकट में बहुत बार धर्म स्वयं भी अपने अर्थ को संकट में पाता है। मकन्द जी ने इस निबन्ध में धर्म के स्वरूप के संकट और तुल्य-बल विरुद्ध धर्मों के बीच चयन के संकट दोनों पर ऐसी शैली में विचार किया है जो विशिष्ट रूप से उनकी इस विचार प्रक्रिया में ही उपजी है। इस प्रकार इस निबन्ध को दार्शनिक चिन्तन में ही नहीं दार्शनिक चिन्तन-शैली में भी एक उत्कृष्ट योगदान कहा जा सकता है।


- यशदेव शल्य